शास्त्र और रीति रिवाज देश काल और परिस्थिति की उपज हैं। देवोपासना से स्त्रियों का रोका जाना न शास्त्रीय है और न ही संवैधानिक। समग्र जीवन जिसपर निवास करता उसे हम पृथ्वी कहते है। हमारे ऋग्वैदिक पूवर्जो ने पृथ्वी को ‘मां‘ की संज्ञा दी है। हम सब मां शब्द से भंली भांति परिचित है, क्योंकि अगर मां न होती तो हम सब ना होते, ये मानव जीवन की उत्पती ना हुई होती। युगों से अब तक हमारे देश मे स्त्रियों के प्रति सम्मान भाव की परंपरा रही है। वही मान्यताओं के आधार पर कही कही स्त्रियों के साथ भेदभाव भी देखने को मिलती है।
केरल की सबरीमाला मंदिर एक जीता जागता उदाहरण है जहां कुछ वर्षो से 10 वर्ष से लेकर 50 वर्ष के आयु वाली महिलाओं का मंदिर मे प्रवेश निषेध है। जिस पर संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 28 सितंबर दिन शुक्रवार को वर्षो से चली आ रही स्त्रियों के प्रति भेदभाव वाली कुप्रथा को समाप्त करते हुए मंदिर के विरोध मे फैसला सुनाई है। जिसके उपरांत इस फैसले पर केरल मे लोगों के द्वारा विरोध किया जा रहा है तथा पुनर्विचार याचिका दाखिल किया गया है। 16 अक्टूबर को सबरीमाला मंदिर को खोला जाना है, जिसको लेकर याचिकाकर्ता उससे पहले सुप्रिम कोर्ट मे सुनवाई की अपील करते दिखे। लेकिन चीफ जस्टीस आॅफ इंडिया रंजन गोगोई ने 16 अक्टुबर से पहले सुनवाई मे असमर्थता जताई।
केरल की सबरीमाला मंदिर करीब 800 वर्ष पुरानी है, जहां पिछले कुछ दशकों से महिलाओं को मंदिर मे प्रवेश करना मना हैं। इसके पीछे कुतर्को का सहारा लेते हुए तर्क यह दिया जा रहा है कि ‘भगवान अययप्प को अपनी ब्रहम्चारी चरित्र को सुरक्षित रखने का अधिकार है, जिसका निष्कर्ष लोगां ने महिलाओं को मंदिर मे प्रवेश से रोक कर निकाला।
केरल राज्य सरकार ने 2015 में सबरीमाला मंदिर मे महिलाओं के प्रवेश को समर्थन किया था। जिसका लोगों के द्वारा जम कर विरोध किया गया। लोगों के द्वारा लगातार हो रहे विरोध को देखते हुए वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को महत्वपूर्ण मानते हुए 5 सदस्य संविधान पीठ को सौप दिया गया। पक्ष विपक्ष के 4¬-1 बहुमत के हिसाब से 5 जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सबरीमाला मंदिर मे महिलाओं को मंदिर मे प्रवेश करने कि अनुमति प्रदान कि गई। 5 सदस्यीय जजों की बेंच मे जस्टीस दीपक मिश्रा, चंद्रचुड., नरीमन, खानविलकर ने मामने को समझते हुए एक मत में सबरीमाला मंदिर के विरोध को असंवैधानिक करार दिया। जस्टीस दीपक मिश्रा ने फैसले को पढते हुए कहा की समाज में आस्था के नाम पर लिंग भेद नही किया जा सकता हैं। कानून और समाज को सभी के साथ बराबरी का हक देता है। महिलाओं के लिए दोहरे मापदंड उनके सम्मान को कम करता हैं। भगवान अययप्पा का दर्शन सबके लिए है, भक्तों को अलग अलग धर्मो मे नही बंाट सकते है। वही जस्टीस इंदु मल्होत्रा ने अपनी असहमती दर्ज की और धार्मिक रिवायतों के बीच मे न्यायिक हस्तक्षेप को गैर जरूरी बताया। वैसे जजों ने संवैधानिक तर्को के उपरांत ही यह फैसला दिया है, जिसका स्वागत देश समाज सहर्ष करते दिख रहे है।
वैसे यह पहला मामला नही है जहां धार्मिक स्थानों पर महिलाओं के प्रति भेदभाव देखने को मिला है। इससें पहले दो और धार्मिक स्थल रहे है जहां महिलाओं के प्रति भेदभाव होते रहे है। पहला है शनि शिंगणापुर और दुसरी जगह है हाजी अली दरगाह। इन दोनों स्थानों पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित था, जिसको लेकर जनहित याचिका दायर किये गए। मुंबई उच्च न्यायालय मे सुनवाई शुरू हुई। इन धार्मिक स्थलों के प्रबंधकों और न्यासियों ने पारंपरिक मान्यताओं की दुहाई के साथ साथ धार्मिक स्वायत्ता के संवैधानिक प्रावधान की दलीले पेश की गई थी। लेकिन मुंबई उच्च न्यायालय ने सारी दलिले खारिज करते हुए कानून के समक्ष सभी वर्गो को समानता के सिद्धांत पर फैसला सुनाई। परिणाम स्वरूप पहले शनि शिंगणापुर मे फिर हाजी अली दरगाह मे महिलाओं के प्रवेश का रास्ता खोला गया। ठिक वैसा ही फैसला 5 सदस्यी संविधान पीठ ने सबरीमाला मंदिर के मामले मे महिलाओं के पक्ष मे फैसला दिया है।
अब एक बात तो यह पूर्णतः साफ हो चुका है कि भले संविधान ने धार्मिक स्वायत्ता की गारंटी दे रखी है, लेकिन उसकी भी एक सीमा निर्धारित की जा चुकी है। इन फैसलों को देखते हुए अब कह सकते है कि धार्मिक स्वायत्ता वही तक मान्य है जहां तक संविधान प्रदत नागरिकों का अधिकार का हनन होता न दिखाई दे रहा हो। अब हमेशा यह ध्यान रखना हमारा दायित्व है कि धार्मिक रीति रिवाज कही भी समाजिक समानता और नागरिक अधिकारों की अवहेलना का जरिया न बन पाऐ। भारत अब तमाम रूढियां को पिदे छोड.ते हुए आगे बढने को तत्पर्य और सुसज्जित है। आज देश की स्त्रियां प्रत्येक क्षेत्र मे अग्रणी भूमिका मे है, तथा आधुनिक और विकसित भारत का नीव समानता के आधार पर होना चाहिए।
--Neeraj Kumar